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आबकारी की दुकानों पर तीसरे दिन भी उडी़ सोशल डिस्टेंसिंग की धज्जियाँ
राजस्व की कमाई के चक्कर में शराब नहीं, कोरोना बेचती उत्तराखंड सरकार!
देहरादून। और प्रदेशों की तरह कौआ नाक ले गया की कहावतको चरितार्थ करते हुये उत्तराखंड की सरकार भी बिना कुछ सोचे समझे ही अधूरी तैयारी के चलते शराब की आड़ में कोरोना बेच कर राजस्व की कमाई की होड़ में दौड़ पडी़ है!
ज्ञात हो कि लाकडाउन-3 के शुरू होते ही जब उत्तराखंड की राजधानी में ही सोशल डिस्टेंसिंग की धज्जियाँ तीसरे दिन भी खूब उड़ती देखीं गई तो पूरे प्रदेश का क्या हाल होगा इसका अनुमान बडी़ आसानी लगाया जा सकता है।
इस नारी शक्ति प्रधान वाले प्रदेश की मातृ शक्ति सरकार के इस आदेश को जहाँ दूरगामी दुखद परिणाम और पहाड़वासियों के परिवारों को फिर उजाड़ने वाला एक कदम बता रहीं है वहीं उनका यह भी मानना है कि प्रदेश में शराब की आड़ में कोरोना ही बेचा जा रहा है जिसे कभी भी उचित नहीं ठहराया जा सकता है।
कुछ वुद्धजीवियों का तो यह भी मानना है कि लाकडाउन 3 के आते-आते प्रदेश सरकारों को राजस्व की इतनी ही चिंता थी तो फिर लाकडाउन और प्रधानमंत्री मोदी जी के सोशल डिस्टेंसिंग के पहले और दूसरे चरण को ही आज की तरह तोड़ देती, कम से कम खासा राजस्व तो जुड़ता।भले ही जनता इस संक्रामक बीमारी की शिकार होती या बचती? जनता का क्या वह तो है ही भुगतने के लिए! अब अगर कोरोना रिटर्न होता है तो उसकी जिम्मेदारी कौन लेगा सरकार या फिर बेचारी जनता?
सरकार को अगर वास्तविक रूप में जरुरतमंदों और गरीबों की मदद करनी ही थी तो फिर उन्हें साथ ही साथ पहले चिन्हित करना चाहिए था? विगत लगभग चालीस दिनों से थाने व चौकियों में लगी लाइनें जो खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही हैं, क्या हकीकत में इतना राशन और भोजन आँख बंद करके बाँटा जाना चाहिए। माले मुफ्त दिले बेरहम और सरकारी भण्डारण पर दरियादिली दिखाये जाने से पहले क्या भारी भरकम अफसरों की भीड़ और अमले व सरकारी मशीनरी से होमवर्क नहीं कराया जाना चाहिये था? देखने में तो यही आ रहा है कि जितना सरकार ने नहीं उससे कहीं अधिक भावुक जनता व निजी संस्थाएँ और एनजीओ ने जनसेवा में खुद अथवा पुलिस व सरकार के आपदा केन्द्रों के माध्यम से बँटवाकर जनसेवा की हैं व निरन्तर कर रहे हैं। क्या सरकार कोई लेखाजोखा जनता के सामने पारदर्शिता के साथ रख पायेगी या फिर…!

सरकार का रूप देखो कि एक ओर गरीबों और जरुरतमंदों को राशन और भोजन बँटवा रही है तथा इस संकट की घडी़ में मध्यम व उच्च वर्ग के लोंगो तथा निजी संस्थाओं व एनजीओ से बढ़चढ़ कर भागीदारी करने को कह रही और सीएम राहत फंड में योगदान देने की बात कह कर झोली फैला रही है वहीं दूसरी ओर उन्हीं गरीब परिवारों के घर जो इस सामाजिक कुरीति और हानिकारक शराब से इतने दिन बचे हुये थे, फिर नशाखोरी की लत व वरवादी की ओर अपनी कमाई के चक्कर में ढकेल रही है।
यहाँ अगर हम सरकार, शासन प्रशासन की व्यवस्थाओं की बात करें तो जितनी शराब देशी हो अंग्रेजी लाकडाउन -1 और लाकडाउन-2 के कार्यकाल में पुलिस द्वारा अवैध रूप में पकडी़ गयी है, वह कहाँ से और कैसे आई? जबकि लाईसेंसी शराब की दुकानें व प्लांट बंद थे! क्या आबकारी विभाग ने सभी उन लाइसेंसी दुकानों के स्टाक चेक कर लिए या फिर खानापूर्ति कर साँठगाँठ के तहत ठेंगा दिखाने का खेल खेला गया? मजे की बात तो यह भी है कि ये सरकार इतनी एक्सपर्ट मार्केटिंग मैनेजमेंट की ज्ञाता है कि विक्री बढ़ जाये और अधिक राजस्व प्राप्त हो जाये इसके लिए जो फार्मूला अपनाया वह भी काबिले तारीफ है। शराब के रेट बढा़ने पर और कोविड टैक्स लगाए जाने जैसी बातों का ढिंढोरा पहले से पीटना इसी में आता है, जनाव।
राजधानी दून के जिलाधिकारी डा.आशीष कुमार श्रीवास्तव की माने या फिर सर्वे चोक के निकट अंग्रेजी शराब की दुकान का तीसरे दिन पौने चार बजे का नजारा ही अपने आप में काफी है आईना दिखाने के लिए।
वाह रे, वाह! कल तक खाली जेब की दुहाई देकर खडे़ थे जो राशन की लाईन में, मोहताज बनकर!
आज वे ही खडे़ हैं शराब खरीदने की लम्बी लम्बी लाईन में!