अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कुल्लू दशहरा 15 अक्तूबर से 21 अक्तूबर, 2021 – Polkhol

अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कुल्लू दशहरा 15 अक्तूबर से 21 अक्तूबर, 2021

 – लेखक  गिरधारी लाल  महाजन 

पहाड़ी संस्कृति की शान लोक नृत्य उत्सव ‘दशहरा’
कुल्लू की पुरातन देव संस्कृति, साहित्य, कला, सांस्कृतिक विरासत और अनूठी लोक परम्पराएं हमारी पहचान एवं शान हैं। हमेशा से ही देव प्रधान रही यहां की संस्कृति बेमिसाल है। संस्कृति के प्रति अटूट श्रद्धा, विश्वास और आए दिन आयोजित होने वाले मेलों, त्योहारों एवं उत्सवों को यहां के लोगों ने अपने जीवन का अभिन्न हिस्सा बना लिया है।
कुल्लू दशहरा की अपनी विशिष्ट परम्परा है कि यह देशभर के दशहरा उत्सव के बाद सात दिनों तक मनाया जाता है। मेले के दौरान न रामलीला का आयोजन होता है और न ही अन्य क्षेत्रों की तरह रावण, कुम्भकरण और मेघनाथ के पुतले जलाए जाते हैं। मेले में कुल्लू घाटी के सैंकड़ों देवी-देवताओं के अनूठे संगम दृष्य को देखने के लिए बड़ी संख्या में श्रद्धालुओं तथा देश-विदेश के सैलानियों का सैलाब उमड़ पड़ता है।। यहां की अनूठी प्राचीन परम्पराओं में शताब्दियां बीतने पर भी कोई अंतर नहीं आया है।
अयोध्या की तर्ज पर मनाया जाता है उत्सव
देश के बाकी हिस्सों में जहां विजयादशमी पर दशहरा उत्सव समाप्त हो जाता है, वहीं सदियों पुराना कुल्लू दशहरा उत्सव विजयादशमी के दिन ही शुरू होता है।दशमी के दिन भगवान श्रीराम ने लंका पर चढ़ाई की थी और यह युद्ध सात दिनों तक चला, पुर्णिमा के दिन रावण का वध हुआ था  ठीक इसी तर्ज पर तिथि के आधार पर कुल्लू में दशहरा उत्सव मनाया जाता है।1651 ईस्वी तक जब भगवान रघुनाथ जी की मूर्ति अयोध्या में थी तो इसी तरह अयोध्या में सात दिनों तक दशहरा की परंपरा निभाई जाती थी।

उत्सव में पहुंचते हैं 350 से अधिक देवी-देवता
कुल्लू जनपद में 365 देवी-देवता मुआफीदार हैं तथा 122 से अधिक देवी देवता गैर मुआफीदार हैं लेकिन सभी देवी देवता उत्सव में नहीं पहुंचते।उत्सव में सिर्फ कुल्लू जिला के ही देवी देवता शिरकत करते हैं। इसके पीछे मान्यता यह है कि जब भगवान रघुनाथ जी  की मूर्तियां अयोध्या से कुल्लू लाई थी तो उनके स्वागत में कुल्लू जिला के सभी देवी-देवता उनके स्वागत के लिए कुल्लू-मंडी की सीमा  मकराहड़ पहुंचे थे उसके बाद से हर साल दशहरा उत्सव में सात दिनों तक जिला के देवी-देवता कुल्लू जनपद पहुंचते हैं और सात दिनों भगवान रघुनाथ जी की चाकरी करते हैं।हर दिन भगवान रघुनाथ जी के अस्थायी शिविर में जाकर शीश नवाते हैं।साथ ही पांच दिनों तक नृसिंह की शाही जलेब का भी हिस्सा बनते हैं।यही नहीं कुछ देवी देवता एक दूसरे के अस्थायी शिविरों में जाकर एक दूसरे से मिलते भी हैं। कुछ देवी देवता यहां पर लोगों के दुखों का भी निवारण करते हैं।

श्रृंगा ऋषि व देव बालूनाग का धूर विवाद
दशहरा उत्सव के दौरान भगवान रघुनाथजी के रथ की दाईं ओर चलने को लेकर श्रृंगा ऋषि व देव बालूनाग में धूर विवाद है। इसके चलते यह बंजार घाटी के यह दोनों देवता उत्सव में आते तो हैं, लेकिन इन्हें रथयात्रा में शामिल होने की इजाजत नहीं होती। प्रशासन की ओर से इन पर धारा 144 लगाकर इन्हें ढालपुर के अस्थायी शिविरों में नजरबंद रखा जाता है। बताया जाता है कि श्रृंगा ऋषि ने ही राजा दशरथ से पुत्र प्राप्ति का यज्ञ करवाया था, जिसके चलते पहले-पहल उन्हें रथ के दाईं ओर रखा जाता था, लेकिन बाद में बालूनाग के कारकूनों व हारियानों से इसे चुनौती दे दी। वर्ष 1998 में यह विवाद अधिक बढ़ गया और दोनों देवता दशहरे में नहीं आए, जबकि वर्ष 2000 में यह उत्सव में आए तो धूर विवाद इतना गहरा गया कि दशहरे में दोनों पक्षों के बीच जोरदार हंगामा हुआ और भगदड़ मच गई। पुलिस को लाठीचार्ज करना पड़ा, देवताओं के उपासकों ने पत्थरबाजी की, जिसमें कई लोग चोटिल हुए। बाद में मामला हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक भी गया, लेकिन सर्वमान्य हल नहीं निकला। इस पर प्रशासन ने श्रृंगा ऋषि व देवता बालूनाग को दशहरे का निमंत्रण भेजना बंद कर दिया, लेकिन यह फिर भी रघुनाथजी से मिलने आते हैं, लेकिन इन्हें नजरबंद रखा जाता है।

पीज व कमांद के जंगलों से आती है लकड़ी
भगवान रघुनाथ जी का रथ के निर्माण के लिए पहले घाटी के पीज व मंडी जिला के कमांद स्थित पराशर ऋषि के जंगलों से लकड़ी लाई जाती थी। उस समय रथ को रखने के लिए कोई उपयुक्त स्थान नहीं था जिसके चलते हर छठे या सातवें साल रथ का निर्माण करवाना पड़ता था। लेकिन स्व. राजा महेंद्र सिंह ने जंगलों को बचाने के उद्देश्य से रथ को रखने के लिए ढालपुर स्थित एक मैदान में एक कमरे का निर्माण करवाया था जिसके बाद रथ वहीं पर रखा जाता है। करीब 35 वर्षों से वही रथ इस्तेमाल किया जा रहा है। रथ को कुल्लू घाटी के भुलंग स्थित शूया गांव का विश्वकर्मा परिवार ही बनाता है। वर्तमान समय में हरि सिंह कारीगर हर साल रथ की जांच करता है और उसके बाद ही रथयात्रा में रथ को शामिल किया जाता है। दशहरा उत्सव के बाद हर साल रथ को ढालपुर स्थित रथमैदान में बने कमरे में रखा जाता है।

कुल्लू राजपरिवार
देश की आजादी के बाद भले ही रियासतें समाप्त हो गई हों, लेकिन कुल्लू घाटी में आज भी राज परिवार का महत्व बरकरार है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण यहां का कुल्लू दशहरा है, जिसमें भगवान रघुनाथ के छड़ीबरदार राजपरिवार के सदस्य होते हैं और उन्हीं के द्वारा उत्सव के सभी आयोजन किए जाते हैं। वर्तमान में महेश्वर सिंह छड़ीबरदार हैं, जिन्हें स्थानीय लोग आज भी राजा साहब कहकर ही संबोधित करते हैं। 1921-1960 तक भगवंत सिंह गद्दी पर बैठे, जिनके बाद महेंद्र सिंह और अब महेंद्र के पुत्र महेश्वर सिंह उत्तराधिकारी हैं।दशहरा उत्सव के पहले दिन रघुनाथपुर से जब भगवान रघुनाथ जी की शोभायात्रा निकलती है सबसे आगे पालकी में भगवान रघुनाथ जी आते हैं और उसके बाद मुख्य छड़ीबरदार महेश्वर सिंह और उनके साथ उनका परिवार।
ललचाते हैं व्यंजन दशहरे के दौरान जगह-जगह लगे व्यंजनों के स्टॉल भी लोगों को खूब ललचाते हैं। यूं तो पर्यटन क्षेत्र होने के कारण यहां हर तरह का भोजन व देश-विदेश में प्रचलित प्रत्येक डिश होटल-रेस्तरां में उपलब्ध है। बावजूद इसके घाटी के अपने पकवान हैं, जो यहां सालों से बनते आए हैं, जो क्षेत्र में सर्दी के लिहाज से पकाए जाते थे और आज परंपरा बन गई है। इनमें प्रमुख रूप से गेहूं के आटे को खट्टा करके बन की तरह सिडडू बनाया जाता है, जिसके अंदर स्वाद के हिसाब से अखरोट, मूंगफली, अफीमदाना का मीठा या नमकीन पेस्ट भरा जाता है।इसके अलावा कचौरी भी काफी पसंद की जाती है।वहीं, मोमो, चौमिन, थुप्का, इडली, डोसा, शांभर, नान छोले, कुलचे भी यहां विभिन्न स्टॉल में उपलब्ध होते हैं जिन्हें देश सहित विदेश के लोग काफी पसंद करते हैं।

पर्यटन कारोबार का सहारा
पर्यटन कारेाबार को कुल्लू दशहरा से काफी सहारा मिलता है। हर साल दशहरा उत्सव में सजने वाले व्यापारिक मेले में जहां यहां के स्थानीय लोग खूब खरीददारी करते हैं वहीं, देश विदेश से आने वाले पर्यटक भी यहां पर भारी मात्रा में उमड़ते हैं और यहां के पारंपरिक व्यंजनों का लुत्फ उठाने के साथ-साथ खरीददारी भी करते हैं। हर साल उत्सव में लाखों की संख्या में देश व विदेशों से लोग पहुंचते हैं। विदेशी पर्यटक यहां की देवसंस्कृति पर शोध भी करते हैं।

  सौ करोड़ से अधिक कारोबार
कुल्लू का अंतरराष्ट्रीय दशहरा ऐतिहासिक होने के साथ-साथ सांस्कृतिक, धार्मिक व सामाजिक विचारधारा का अनूठा संगम है और व्यापारिक दृष्टि से भी इसका विशेष महत्व है। हर साल कुल्लू दाहरे में औसतन सौ करोड़ से अधिक का व्यापार होता है।

दशहरा के दौरान धार्मिक अनुष्ठान परंपरागत ढंग से आयोजित होंगे। सांस्कृतिक कार्यक्रम और व्यवसायिक गतिविधियां नहीं होंगी। केवल देवता और उनके रथ ही ढालपुर मैदान की शोभा बढ़ाएंगे। 332 देवी देवताओं को निमंत्रण भेजा गया है। दशहरा विश्व को यह शिक्षा देता है कि बुराई चाहे कितनी ही शक्तिशाली दिखाई देती हो, लेकिन सत्य और अच्छाई के समक्ष स्थापित नहीं हो सकती। अश्विन माह की दशवीं तिथि को इसकी शुरूआत होती है। कुल्लू दशहरा उत्सव के लिए 369 साल पहले राज जगत सिंह ने देवताओं को बुलाने के लिए न्यौता देने की परंपरा आरंभ की थी जो आज भी प्रचलित है। बिना न्योते के देवता अपने मूल स्थाने से कदम भी नहीं रखते। न्यौते पर करीब 200 किलोमीटर तक पैदल यात्रा कर नदियां, जंगलों पहाड़ों से होते हुए अभरह करढू की सोह ढालपुर पहुंचते हैं। सात दिनों में एक जगह पर 300 से अधिक देवी देवताओं के दर्शन के लिए हर साल 10 उलाख से ज्यादा लोग, देसी विदेशी सैलानी व शोधार्थी हाजिरी भरते हैं।

दशहरा उत्सव में मुख्य तीन भाग ठाकुर निकालना, मोहल्ला तथा लंका दहन है। इस उत्सव के आयोजन में देवी हिडिंबा की उपस्थिति अनिवार्य है। देवी हिडिंबा के बिना रघुनाथ जी की रथयात्रा नहीं निकली जाती। दशहरे के आरंभ में सर्वप्रथम राजवंश द्वारा देवी हिडिंबा की पूजा अर्चना की जाती है तथा राजमहल से रघुनाथ जी की सवारी रथ मैदाल ढालपुर की ओर निकल पड़ती है। शोभा यात्रा का दृष्य बड़ा ही मनमोहक होता है। रथयात्रा के साथ देव संस्कृति परंपरकि वेशभूषा, वाद्य यत्रों की ध्वनि, देवी देवताओं में आथ्था, श्रद्धा व उल्लास के एक अनूठा संगम देखने को मिलता है। मोहल्ला के नाम से प्रख्यात दशहरे के छठे दिन सभी देवी-देवता रघुनाथ जी के शिविर में शीश नवाकर अपनी उपस्थित दर्ज करवाते है।
इस दौरान देवी देवता आप में इस कद्र मिलते हैं मानों मानव को आपसी प्रेम का संदेश दे रहे हों। दशहरा उत्सव के अंतिम दिन शिविर में से रघुनाथ जी की मूर्ति को निकालकर रथ में रखा जाता है तथा इस रथ को खींचकर मैदान के अंतिम छोर तक लाया जाता है। देवी देवताओं की पालकियों के साथ ग्रामवासी वाद्य यंत्र बजाते हुए चलते हैं। ब्यास नदी के तट पर एकत्रिक घास व लकडियों को आग लगाने के बाद पंाच बलियां दी जाती है तथा रथ को पुनः खींचकर रथ मेदान तक लाया जाता है। इसी के साथ लंका दहन की समाप्ति हो जाती है तथा रघुनाथ जी की पालकी को वापस मंदिर लाया जाता है। देवी देवता भी अपने अपने गांव के लिए प्रस्थान करते हें।
कुल्लू घाटी को पहले कुलंथपीठ कहा जाता था। कुलंथपीठ का शाब्दिक अर्थ है रहने योग्य दुनिया का अंत। कुल्लू घाटी भारत में देवताओं की घाटी रही है। हिमाचल प्रदेश में बसा एक खूबसूरत पर्यटक स्थल है कुल्लु। बरसों से इसकी खूबसूरती और हरियाली पर्यटकों को अपनी ओर खींचती आई है। विज नदी के किनारे बसा यह स्थान अपने यहां मनाए जाने वाले रंगबिरंगे दशहरा के लिए प्रसिद्ध है। यहां 17वीं शताब्दी में निर्मित रघुनाथजी का मंदिर भी है जो हिंदुओं का प्रमुख तीर्थ स्थान है।
सिल्वर वैली के नाम से मशहूर यह जगह केवल सांस्कृतिक और धार्मिक गतिविधियों के लिए ही नहीं बल्कि एडवेंचर स्पोर्ट के लिए भी प्रसिद्ध है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *