देहरादून। विधान सभा चुनाव में इस बार मुख्य राजनैतिक दलों काग्रेंस और भाजपा दोनों की हालत पतली नजर आ रही है। किसी भी दल की सरकार बहुमत में दिखाई नहीं पड़ रही है भले ही वे दावे कुछ भी कर रहे हों। इसका मुख्य कारण दोनों ही दलों का टिकट बँटवारे का समीकरण कमजोर पड़ रहा है। पहाड़ से मैदान तक विधान सभा सीटों में निर्दलीय प्रत्याशियों का ग्राफ बढ़ता ही जा रहा है क्योंकि दोनों ही दलों के नीतिकारों ने सामंजस्य कम और अपना पराया अधिक देखा, यहाँ तक की इन दलों का खुफिया तंत्र भी गच्चा खा गया। जिसके कारण जिती जिताई कई सीटें खो जायेंगीं। टिकटों का सही बँटवारा न होना और वही पुरानी घिसी पिटी चाले चलने व थके हुये, अहंकारी एवं निष्क्रिय एव क्षेत्रों से लापता रहे विधायकों को इस बार दोबारा से चुनने में मतदाता परहेज कर रहा है, भले ही वह ऊपरी मन से कुछ भी कहे।
इस बार उत्तराखंड में त्रिशंकु सरकार की सम्भावना इसी लिए और भी प्रबल होती जा रही है क्योंकि जिन लोगों ने फील्ड में सक्रिय रह कर पार्टी के प्रति वफादारी और निष्ठा से कार्य किया तथा क्षेत्र में पकड़ बनाई उन पर इन दोनो ही दलों के रणनीतकारों ने भरोसा नहीं किया और उन्हें हमेशा की तरह लारे लप्पे में ही रखा। राजधानी देहरादून व आसपास की ही सीटों के यदि गणित को हम देखें तो राजपुर विधान सभा क्षेत्र के वर्तमान विधायक केवल फोटो में ही छपते नजर आये हकीकत में नहीं। जनता उनके दर्शनों को ही तरसती रही और वे कहीं और ही अपना ढोल बजाने में मस्त रहे तथा दूसरी ओर कांग्रेस प्रत्याशी की लोकप्रियता बजाए बढ़ने के घटी है। दोनो दलों ने ऐसे ऐसे उम्मीदवारों का चयन किया जो काफी लम्बे समय से अज्ञातवास में थे और उनकी पहचान भी धुँधली हो चुकी थी, परन्तु वोटर को अपनी बपौती समझने वाले इन प्रमुख सियासी दलों को शायद इस बार अप्रत्याशित परिणाम आने पर पता चल जायेगा कि ऐसा समझना उनकी भूल रही। यही हाल धर्मपुर विधान सभा क्षेत्र में है, यहाँ के दोनो प्रमुख दलों के प्रत्याशी अहंकारी और अव्यवहारिक क्षेत्र की जनता को अपना नौकर और यतीम समझने वाले जाने जाते हैं, इनकी दुत्कार ही इनके रास्ते में बाधा बन कर एक सशक्त निर्दलीय प्रत्याशी को विधायक बना सकती है। कैण्ट विधान सभा में भी इस बार जो मलाई सत्ताधारी दल खा चुका उस रास्ते में भी इतनी सहानुभूति नहीं बटोर पायेगी जितनी उसे ऊम्मीद है और जिसके हाथ में राजयोग है ही नहीं, उसका भ्रम फिर टूट सकता है? डोईवाला सीट पर दोनो ही दल पहले ही हार मान चुके हैं यहाँ भी उक्रांद या निर्दलीय प्रत्याशी चोट पहुँचा सकते हैं। मसूरी सीट पर अवश्य वर्थमान विधायक की पकड़ बनी हुई है। सहसपुर सीट पर काँटे की टक्कर दिखाई पड़ रही है, जो मामूली आँकडों के खेल में रहेगी। रायपुर सीट पर विधायक जी के लिए भी खेल भीतरघाती और दुत्कारे गये प्रत्याशी बिगाड़ सकते हैं तथा अज्ञातवास से बाहर निकले प्रमुख दल के प्रत्याशी को लोग बूढा शेर तो मान रहे हैं परन्तु यंग मतदाता तो पहचानता ही नहीं है, ऐसे में मतों का टोटा पड़ सकता है।
अभी भी यदि इन राजनैतिक चालों के महारथियों ने अपनी अपनी गल्तियों को सुधारने और बागियों व भीतर घातियों और असंतुष्टों को नहीं सम्हाला तो उनका चुनाव मैदान में बना रहना ही घातक साबित होगा।
यह हाल केवल देहरदून का ही नहीं कमोवेश नैनीताल, सहित टिहरी, पौढी और हरिद्वार की सीटों पर दिखाई पड़ रहा है, जहाँ दिग्गजों को अपनी प्रतिष्ठा बचाना मुश्किल नज़र आ रहा है। लालकुआँ सीट पर माननीय की सीट और खटीमा से दूसरे महारथी भी पिछड़ सकते हैं तथा नरेन्द्र नगर सीट पर एंटी इनकमवेशी अधिक है। कोटद्वार भी कुछ अलग ही गुल खिलायेगा।
बडे़ सियासी दलों की इन अनेकों गल्तियों का लाभ निर्दलीय और बागी उम्मीदवारों को मिलेगा जो जनता से जुडे़ रहे। यही कारण होगा कि निर्दलीय प्रत्याशी ही सरकार बनाने में अहम भूमिका निभायेंगे। इस प्रकार से बनने वाली त्रिशंकु सरकार एक बार फिर जन विकास में कम और कुर्सी बचाने में ज्यादा लगी रहेगी। मतदाता क्या करता है किसे चुनता है यह तो 10 मार्च को ही पता चलेगा, फिलहाल हमारा अभी तक की स्थितियों के मद्देनजर किया गया विश्लेषण तो यही बता रहा है, कि किसी पार्टी का बहुमत के साथ जीतना कुछ ऐसा हैं जैसे क्रिकेट के मैदान में आखरी बॉल पर 7 रन बनाना ।