देहरादून। धामी-2 सरकार की पहली कैबिनेट में उत्तराखंड राज्य में यूनिफार्म सिविल कोड लागू करने के लिए एक विशेषज्ञ समिति गठित करने का निर्णय लिया गया। समिति में विधि विशेषज्ञ शामिल होंगे।
मुख्यमंत्री धामी ने कहा कि हम राज्य में यूनिफार्म सिविल कोड (समान नागरिक संहिता) लागू करने के लिए प्रतिबद्ध हैं और उन्होंने चुनाव में किए गये वादों को पूरा करने की पहल आज से शुरू कर दी है। उन्होंने यह भी कहा कि कैबिनेट के सर्वसम्मति से लिया यह निर्णय, ऐसा करने वाला उत्तराखंड पहला राज्य है।
क्या है यूनिफार्म सिविल कोड।-
यूनिफार्म सिविल कोड पूरे प्रदेश में समान नागरिक संहिता होता है इसके लागू होने से सभी धर्म के लोगों के अलग अलग कानून नहीं होंगे। मुस्लिम पर्सनल लाॅ बोर्ड प्रभावी नहीं रहेगा।
यूनिफॉर्म सिविल कोड का अर्थ है प्रत्येक नागरिक को एक समान कानून का अधिकार। यह एक प्रकार का पंथ निरपेक्ष कानून है। यह कानून सभी धर्मों और जातियों के लोगों पर एक समान रूप से लागू होगा। विवाह, तलाक व जमीन जायदाद के बंटवारे में सभी धर्मों के लिए एक ही कानून होगा।
1961 में गोवा के भारत में विलय के बाद भारतीय संसद ने गोवा में ‘पुर्तगाल सिविल कोड 1867’ को लागू करने का प्रावधान किया जिसके तहत गोवा में समान नागरिक संहिता लागू हो गयी. इस कानून के अंतर्गत शादी-ब्याह, तलाक, दहेज, उत्तराधिकार के मामलों में हिंदू, मुसलमान और ईसाइयों पर एक ही कानून लागू होता है।

केंद्र सरकार (central government) ने देश में समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code) लागू करने के मामले दिल्ली हाई कोर्ट में हलफनामा दाखिल किया है. दिल्ली हाई कोर्ट ( Delhi High Court) में दाखिल हलफनामा में कहा गया है कि मामला लॉ कमीशन के समक्ष लंबित है और ला कमीशन इस पर गहराई से विचार कर रहा है. हलफनामे में कहा कि लॉ कमीशन के रिपोर्ट के बाद केंद्र सरकार कोई फैसला लेगी. फिलहाल केंद्र सरकार द्वारा हलफनामे के मुताबिक समान नागरिक संहिता लागू करने का अभी कोई विचार नहीं किया गया है. लॉ कमीशन के रिपोर्ट के बाद ही केंद्र सरकार समान नागरिक संहिता पर अपना रुख तय करेगा।
संविधान के अनुच्छेद 44 के तहत समान नागरिक संहिता को लागू करना राज्यों की जिम्मेदारी है, लेकिन बड़ा सवाल ये है कि आखिर यूनिफॉर्म सिविल कोड अबतक लागू क्यों नहीं हो सका है? सुप्रीम कोर्ट ने भी देश में समान नागरिक संहिता लागू न किए जाने पर सवाल उठाए. सुप्रीम कोर्ट ने ये तक कहा कि संविधान के अनुच्छेद 44 की अपेक्षाओं के मुताबिक सरकार ने समान नागरिक संहिता बनाने की कोई ठोस कोशिश नहीं की. सुप्रीम कोर्ट ने समान नागरिक संहिता बनाने के संबंध में अप्रैल 1985 में पहली बार सुझाव दिया था।