ऋषिकेश। तीर्थ नगरी ऋषिकेश के तमाम आश्रमों में देश विदेश से आए लाखों की संख्या में गुरु पूर्णिमा के अवसर पर अपने गुरुओं की पूजा अर्चना कर जहां गुरु मंत्र लिया, वही जीवन में सुख समृद्धि का आशीर्वाद भी प्राप्त किया। बुधवार की सुबह से ही भक्तों द्वारा अपने गुरु की पूजा अर्चना प्रारंभ कर दी गई थी।
इस दौरान जयराम आश्रम के पीठाधीश्वर धर्म स्वरूप ब्रह्मचारी ने भक्तों को संबोधित करते हुए गुरु और शिष्य के बीच के संबंध को समझाते हुए कहा किगुरु ही ब्रह्मा, गुरु ही विष्णु, गुरु ही शिव और गुरु ही परमब्रह्म है; ऐसे गुरुदेव को हमेशा याद रखें । अखण्ड मण्डलरूप इस चराचर जगत में व्याप्त परमात्मा के चरणकमलों का दर्शन जो कराते हैं; ऐसे गुरुदेव को नमस्कार है। उन्होंने कहा कि
ध्यानमूलं गुरोर्मूर्ति: पूजामूलं गुरो: पदम्।
मंत्रमूलं गुरोर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरो: कृपा।।
अर्थात्–गुरुमूर्ति का ध्यान ही सब ध्यानों का मूल है, गुरु के चरणकमल की पूजा ही सब पूजाओं का मूल है, गुरुवाक्य ही सब मन्त्रों का मूल है और गुरु की कृपा ही मुक्ति प्राप्त करने का प्रधान साधन है।
‘गुरु’ शब्द का अभिप्राय
जो अज्ञान के अंधकार से बंद मनुष्य के नेत्रों को ज्ञानरूपी सलाई से खोल देता है, वह गुरु है।जो शिष्य के कानों में ज्ञानरूपी अमृत का सिंचन करता है, वह गुरु है।जो शिष्य को धर्म, नीति आदि का ज्ञान कराए, वह गुरु है।जो शिष्य को वेद आदि शास्त्रों के रहस्य को समझाए, वह गुरु है। उन्होंने गुरु पूजा के बारे में बताया कि गुरुपूजा का अर्थ किसी व्यक्ति का पूजन या आदर नहीं है वरन् उस गुरु की देह में स्थित ज्ञान का आदर है, ब्रह्मज्ञान का पूजन है।
जनार्दन आश्रम दंडी बाडा के केशव स्वरूप ब्रह्मचारी ने कहा कि आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा के दिन सभी अपने-अपने गुरु की पूजा विशेष रूप से करते हैं। यह सद्गुरु के पूजन का पर्व है, इसलिए इसे गुरुपूर्णिमा कहते हैं। जिन ऋषियों-गुरुओं ने इस संसार को इतना ज्ञान दिया, उनके प्रति कृतज्ञता दिखाने का, ऋषिऋण चुकाने का और उनका आशीर्वाद पाने का पर्व गुरुपूर्णिमाहै। यह श्रद्धा और समर्पण का पर्व है। गुरुपूर्णिमा का पर्व पूरे वर्षभर की पूर्णिमा मनाने के पुण्य का फल तो देता ही है, साथ ही मनुष्य में कृतज्ञता का सद्गुण भी भरता है।
गुरु गोविन्द दोउ खड़े काके लागूं पांय।
बलिहारी गुरु आपने गोविन्द दियो बताय।।
माता-पिता जन्म देने के कारण पूजनीय हैं किन्तु गुरु धर्म और अधर्म का ज्ञान कराने से अधिक पूजनीय हैं। परमेश्वर के रुष्ट हो जाने पर तो गुरु बचाने वाले हैं परन्तु गुरु के अप्रसन्न होने पर कोई भी बचाने वाला नहीं हैं। गुरुदेव की सेवा-पूजा से जीवन जीने की कला के साथ परमात्मा की प्राप्ति का मार्ग भी दिखाई पड़ जाता है।
गुरु पूर्णिमा के शुभ अवसर पर भगवान गिरी आश्रम के मंडलेश्वर बाबा भूपेंद्र गिरी ने कहा कि
कवच अभेद विप्र गुरु पूजा।
एहि सम विजय उपाय न दूजा।।
अर्थात्–वेदज्ञ ब्राह्मण ही गुरु है, उन गुरुदेव की सेवा करके, उनके आशीर्वाद के अभेद्य कवच से सुरक्षित हुए बिना संसार रूपी युद्ध में विजय प्राप्त करना मुश्किल है।आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को भगवान वेदव्यास का अवतरण पृथ्वी पर हुआ था इसलिए यह व्यासपूर्णिमा कहलाती है। व्यासजी ऋषि वशिष्ठ के पौत्र व पराशर ऋषि के पुत्र हैं।
व्यासदेवजी गुरुओं के भी गुरु माने जाते हैं। वेदव्यासजी ज्ञान, भक्ति, विद्वत्ता और अथाह कवित्व शक्ति से सम्पन्न थे। इनसे बड़ा कवि मिलना मुश्किल है। उन्होंने ‘ब्रह्मसूत्र’ बनाया, संसार में वेदों का विस्तार करके ज्ञान, उपासना और कर्म की त्रिवेणी बहा दी, इसलिए उनका नाम ‘वेदव्यास’ पड़ा। पांचवा वेद ‘महाभारत’ और श्रीमद्भागवतपुराण की रचना व्यासजी ने की। अठारह पुराणों की रचना करके छोटी-छोटी कहानियों द्वारा वेदों को समझाने की चेष्टा की। संसार में जितने भी धर्मग्रन्थ हैं, चाहे वे किसी भी धर्म या पन्थ के हों, उनमें अगर कोई कल्याणकारी बात लिखी है तो वह भगवान वेदव्यास के शास्त्रों से ली गयी है। इसलिए कहा जाता है–‘व्यासोच्छिष्टं जगत्सर्वम्’ अर्थात् जगत में सबकुछ व्यासजी का ही उच्छिष्ट है।इस दौरान उनके भक्तों ने उनका तिलक कर पूजन भी किया ।
इसी कड़ी में मायाकुंड स्थित कृष्ण कुंज आश्रम में उत्तराखंड पीठाधीश्वर स्वामी कृष्णाचार्य की पूजा अर्चना हजारों लोगों ने श्रद्धा पूर्वक की वही तारा माता मंदिर में संध्या गिरी महाराज की भी पूजा अर्चना की स्वर्ग आश्रम स्थित गीता आश्रम में ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर वेदव्यासानंद, और शांतानंद, हरिहर तीर्थ में स्वामी प्रेमानंद, के शिष्यों ने गुरु पूजन किया।