सरकारी बैंकों ने बट्टा खाते में डाले 3 लाख करोड़ का कर्ज

भारतीय रिजर्व बैंक के ताजा आंकड़े चौंकाने वाले हैं। बैंक की ओर से जारी रपट में कहा गया है कि सन 2014 से 2018 यानी चार साल के बीच सार्वजनिक क्षेत्र के 21 बैंकों(पीएसबी) ने अपने बट्टा खाते के कर्ज से 3,16,500 करोड़ रुपए की राशि बट्टा खाते में डाल दी है। जबकि इस दौरान वसूली सिर्फ 44,900 करोड़ रुपए की हुई है। यानी वसूली की सात गुना राशि बट्टा खाते में डाली गई है।

केंद्रीय बैंक के अनुसार बैंकों ने अपने बही खाते में जितनी राशि बट्टा खाते में डाली है वह 2018-19 के आम बजट में शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक सुरक्षा के लिए प्रदत्त 1.38 लाख करोड़ रुपए की राशि की दोगुना है। अगर इसकी अतीत से तुलना की जाए तो 2014 तक के दस सालों में जितनी राशि बट्टा खाते में डाली गई है यह राशि उसकी 166 प्रतिशत है।

जहां तक रिकवरी रेट का सवाल है तो वह 2018 में सरकारी बैंकों के लिए 14.2 प्रतिशत रहा जबकि निजी बैंकों के लिए 5 प्रतिशत रहा। यानी सरकारी बैंकों में तीन गुना रिकवरी हुई। लेकिन सरकारी बैंक का बट्टा खाते का ऋण उनकी अपनी हैसियत से ज्यादा है। अगर सरकारी बैंकों का जायदाद में कुल योगदान 70 प्रतिशत है तो उनका बट्टा खाते का कर्ज 86 प्रतिशत है।

सरकारी बैंकों की यह स्थिति तब है जबकि सरकार 2011 से ही उनका स्वास्थ्य ठीक करने के लिए उसमें इक्विटी कैपिटल झोंक रही है। दरअसल सरकार के पूरे सहयोग के बावजूद बैंकों की तनाव में रहने वाली संपत्तियां बढ़ती गई हैं। हालांकि 2014 तक एनपीए की वृध्दि रुकी रही। उसके बाद उसमें बेतहाशा वृध्दि दिखाई पड़ती है।

सन 2014-15 में बैंकों की कुल परिसंपत्तियों का 4.62 प्रतिशत हिस्सा बट्टा खाते में था तो वर्ष 2015-16 में यह बढ़कर 7.79 प्रतिशत हो गया। सन 2017-18 में यह ऋण 10.41 प्रतिशत था।

एनडीए सरकार ने सन 2014 में Asset Quality Review (AQR) का एक फार्मूला निकाला और जिसने जोड़ घटाना करके बताया कि 2014 से पहले भी बैंकों का बहुत सारा कर्ज बट्टा खाते में था लेकिन उस समय उसे माना नहीं गया था। ताजा स्थिति यह है कि सरकार ने 12 बट्टा खाते नेशनल कंपनी ला ट्रिब्यूनल को भेज दिए हैं। अब वे अकाउंट बढ़  कर 28-29 हो गए हैं और उसमें जितनी राशि पर सुनवाई चल रही है वह 90,000 करोड़ रुपए के आसपास है।

जहां तक बट्टा खाते का मामला है तो इसका मतलब यह नहीं है कि बैंक ऐसा निर्णय लेने से कर्ज वसूली का अधिकार खो देते हैं। वे दरअसल ऐसा निर्णय अपनी बैलेंस शीट को सही करने के लिए करते हैं। ताकि करों और दूसरे वित्तीय सवालों पर हिसाब किताब दुरुस्त कर सकें। इसके बाद भी बैंक वसूली

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