क्या TSRCM का सर्वोच्च न्यायालय जाने का कदम सही या फिर चोर की दाढ़ी में तिनका की कहावत सही?

क्या TSRCM का सर्वोच्च न्यायालय जाने का कदम सही या फिर चोर की दाढ़ी में तिनका की कहावत सही ?

फिर क्या लुटियन्स एवं मैनेज्ड मीडिया व कारपोरेट प्रिंट मीडिया ने पाठकों व दर्शकों को हैरान करने बाला फिर भ्रमित समाचार परोसा!

यदि न चेती अभी भी सरकार और पुलिस अलाकमान तो होगी फिर पुनरावृत्ति!

(नजरिया अपनी नजर से : सुनील गुप्ता)

देहरादून। विगत 27 अक्टूबर को माननीय उच्च न्यायालय के आये ऐतिहासिक फैसले पर प्रदेश की राजनीति में जैसे ही भूचाल आया और स्तीफा माँगे जाने व नैतिकता का प्रश्न उत्पन्न होते ही नौबत यहाँ तक पहुँची कि TSR को सुप्रीम कोर्ट आनन फानन में जाने का निर्णय लेना पड़ा! जबकि और भी विकल्प यहीँ उत्तराखण्ड उच्च न्यायलय में ही थे, बताये जा रहे हैं! TSR का यह कदम हड़बड़ाहट भर माना जाये या फिर घबराहट बाला? नहीं तो ऐसी क्या बजह थी जो माननीय सर्वोच्च न्यायलय की शरण मे तुरत फुरत में चले गए? क्या यही एक कदम मुख्यंमत्री के पद पर आसीन TSR के पास विकल्प के रूप में था? या फिर उन्हें CM की कुर्सी के जाने का खतरा दिखने लगा था?


TSR यदि अपने को निर्दोष मानते हैं तो फिर सीबीआई जाँच से क्यों भागते नजर आए और बचना चाह रहे थे? चाहे उनका नाम या पक्षकार के रूप में उस याचिका में था या नहीं?
इसका सीधा-सीधा मतलब यह नहीं माना जाना चाहिये कि “चोर की दाढ़ी में तिनका” बाली कहावत ही यहाँ सटीक है! क्या सर्वोच्च न्यायालय से मिली इस मामले में उच्च न्यायालय के आठ पॉइन्ट बाले (155.1 से लेकर 155.8) आदेश में आंशिक रूप से केवल 155.6, 155.7 व 155.8 पर मिली चार सप्ताह की राहत (Stay) को जीत मानकर जिस तरह छब्बे बनने का जो प्रयास किया जा रहा है वह अपने आप में ही तरह-तरह के सवालिया निशान लगा रहा है तथा स्वतः ही दर्शाने लगा है कि जरूर दाल में कुछ काला तो अवश्य है, तभी तो TSR परेशान और चिंतित नजर आ रहे हैं। यहां उल्लेख करना उचित होगा कि उक्त तीनों पॉइन्ट केवल सीबीआई जाँच व एफआईआर दर्ज किए जाने पर फिलहाल रोक मात्र हैं, जिसे अभी मैरिट पर सुना भी जाना है।
पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं उच्च न्यायालय के उक्त आदेश सम्बन्धी दो पृष्ठ व सुप्रीम कोर्ट का दो पृष्ठीय आदेश…

High court order 27Octobar

Page 83 of hc order

अब देखिए सर्वोच्च न्यायालय का 29-10-2020 का आदेश…

Suprime court orderIind page of SC orderउल्लेखनीय है कि ठीक यही हाल लुटियन्स एवं मैनेज्ड मीडिया व प्रिंट मीडिया ने मिल रहे लांखों लांखों के विज्ञापनों की ललक में अपने पाठकों व दर्शकों को “हैरान करने बाला आदेश” और “चौंकाने बाली बात” फैला कर भ्रम की स्थिति पैदा कर धूल झोंकने का जो प्रयास फिर किया है वह भी कम निंदनीय व धोखा नहीं है क्या? क्या पाठकों को इनकी विश्वसनीयता पर विचार नहीं करना चाहिए!

ज्ञात हो कि इस पूरे प्रकरण में क्या जीरो टॉलरेंस बाली और सुशासन व पारदर्शिता बाली उत्तराखंड की त्रिवेन्द्र सरकार को सबसे पहले उच्चन्यायालय के FIR क्वेशिंग के आदेश पर डीआईजी/एस एसपी आईपीएस अरुण मोहन जोशी एवं उनके नेतृत्व में उस राजपत्रित क्षेत्राधिकारी पल्लवी त्यागी, जिनके द्वारा जाँच की गई और साथ ही दून पुलिस के विवेचना में शामिल निरीक्षकों व दरोगाओं सहित उन सभी पर दंडात्मक कार्यवाही नहीं करनी चाहिए जिन्होंने अनुशासन व जी हुजूरी में दबे होने के कारण कानून सम्मत कार्यवाही न करके वह किया जो नहीं किया जाना चाहिए था! उनके इस अनुचित एकतरफा कार्यवाही और पुलिस विभाग के विरुद्ध समीक्षा व मूल्यांकन न किया जाना क्या इनकी अपरिपक्वता, अक्षमता और नेगलिजेंसी की श्रेणी में नही आता, जिनके कारण राजद्रोह जैसे थोपे गये गम्भीर आरोप का रदद् होना व तत्पश्चात उक्त FIR का क्वेश (खारिज) खारिज किया जाना शर्मनाक नहीं है? क्या एक पत्रकार की ज़िन्दगी से इस तरह का खिलवाड़ और उसके इस कारण बिला बजह जेल में डाले रखने व अवैध रूप से पिटाई किया जाना आदि उचित ठहराया जा सकता है? क्या उसके सामाजिक मूल्यों की वापसी के लिए कोई कानून है? किसी की कोई कहीं पर इस व्यवस्था में जबावदेही नही होनी चाहिए!

इस प्रकरण से यहां यह तथ्य तो देवभूमि में खुल कर देखने को अवश्य मिला कि हम भृष्टाचार विरोधी निर्भीक कलम के सिपाही पत्रकार इस समाज व प्रदेश के नागरिक नहीं है, उन्हें सम्मान व इज्जत के साथ रहने का भी हक नहीं है! तभी तो उनके साथ सामाजिक व राजनैतिक कार्यकर्ता व दल एवं संगठन खड़े नहीं होते हैं!

यदि ऐसा नहीं तो कहाँ लुप्त हो जाती या दुबक जाती हैं तब सभी राजनीतिक व सामाजिक संस्थाएं जब जनहित में बेबाकी व निर्भीकता से आईना दिखाने बाले पत्रकारों पर अत्यचार हो रहा होता है या पुलिसिया कहर टूट रहा होता है? वैसे तो कॉंग्रेस सहित सभी को अक्सर दलित, निर्बल, महिला, अल्पसंख्यक प्रेम जैसे मुद्दे पर जागते और रिएक्ट होते व सड़क जाम, चक्काजाम, धरना व प्रदर्शन करते सदैव देखा भी जाता है! यही नहीं इनके इन कृत्यों को सभी पत्रकारों द्वारा जनता के समक्ष प्रमुखता से दिखाया भी जाता है, वरना इनके धरने प्रदर्शन कहाँ रह जाएंगे, की कल्पना करना बड़ा आसान है! क्योँ फिर अत्याचारों के शिकार हो रहे पत्रकारों से दूरी क्यों?

इस फैसले में किये गए जाँच के आदेश में उत्तराखंड हाइकोर्ट ने त्रिवेन्द्र सिंह रावत के झारखंड प्रभारी के रहते समय, किये गए भ्रष्टाचार के आरोपों की सच्चाई जनता के सामने भी आए इसलिये जांच सीबीआई करे!

मजे की बात तो यहां यह भी है कि इस आदेश के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायलय में सरकारी एडवोकेट जनरल व सरकारी बक़ीलों का इस्तेमाल क्यों किया गया? TSR द्वारा व्यक्तिगत रूप। से अन्य अधिवक्ताओं को क्यों नहीं लाया गया?
क्या उनका खर्चा और फीस भी सरकारी धन (public mony) के ही बलबूते पर होगी?

क्या देश के प्रथम अधिवक्ता एडवोकेट जनरल का गलत प्रयोग नहीं किया गया?

क्या एक व्यक्ति विशेष TSR से सरकार अस्थिर हो जाएगी, पर भाजपा को शायद इसी की ज्यादा चिंता थी पार्टी व प्रदेश की नहीं?

लेकिन जब इसी प्रकार हरीश रावत सरकार खतरे में पड़ी थी तब क्यों चीख रहे थे भाजपाई !

भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस की नीति क्या यही है? की जब उँगली दूसरों की तरफ तो नीति और अगर खुद पर उठे तो कतराना या भाग निकलना?

पल-पल में नैतिकता के आधार पर स्तीफा माँगने बाली भाजपा की नैतिकता आज कहाँ लुप्त हो गयी?

कहाँ गये “दल बड़ा है, व्यक्ति नही” बाले भाजपा के सिद्धांत?

जब अपने पर आई तो सर्वोच्च न्यायलय की शरण वरना शराब, सड़कों पर परोसने में अध्यादेश?

अगर ऐसा ही था तो पूर्व की तरह अगले ही दिन अध्यादेश भी ले ही आती, और तब सीबीआई जाँच रोकी जा सकने का फार्मूला भी अपना लिया जाना चाहिए था? क्योंकि सीएम भी ये ही और कैबिनेट भी इनकी तथा कानून भी इनकी मुट्ठी में…!

ढूंढ लो-ढूंढ लो और उखाड़ लो गड़े मुर्दे व कर लो एक और कोशिश, लेकिन करना निष्पक्ष जाँच व कार्यवाही ही, डीआईजी साहब!

क्या TSR सरकार और उनका शासन व पुलिस हाईकमान अब एक और पत्रकार जो वेबाकी एवं निर्भीकता से अपने समाचार पत्र “तीसरी आँख का तहलका” और न्यूज़ पोर्टल “पोलखोल.इन” में प्रदेश में घटित हो रहे भृष्टाचारों को उजागर करते रहने बाले पत्रकार सुनील गुप्ता के विरुद्ध चल रही रंजिशन साज़िश को, जिसे अंजाम देने का प्रयास किया जा रहा है और चाल, चरित्र, व चेहरे में अन्तर बाले डीआईजी व एसएसपी के द्वारा बुने जा रहे जाल और चुंगल में फंसाने की कार्यप्रणाली और अपनाये जा रहे पक्षपाती रवैये पर विराम लगाने और पुलिस तन्त्र के दुरुपयोग से रोकने की कोई सार्थक पहल करेगा? या फिर, ऐसे ही दमन और उत्पीड़न की कार्यवाहियों को स्वार्थवश शह देता रहेगा?
क्या अभी भी नहीं चेतेगी सरकार और होगी फिर पुनरावृत्ति!
जो भी कोशिशें हों पर सदा जिन्दा रहेगी पत्रकारिता और लिखते रहेंगेे पत्रकार !

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