मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के नेतृत्व में भाजपा ने विधानसभा चुनाव में शानदार जीत दर्ज की, लेकिन धामी स्वयं अपनी सीट हार गए। इसके बावजूद भाजपा नेतृत्व ने धामी पर ही भरोसा दिखाया और उन्हें फिर मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंप दी। अब धामी को छह महीने के अंदर विधानसभा का सदस्य बनना है तो विधायकों में होड़ लगी है कि धामी उनकी सीट से चुनाव लड़ें।
कांग्रेस के एक और एक निर्दलीय विधायक भी शामिल
लगभग 10 विधायक अब तक धामी के लिए अपनी सीट छोडऩे की पेशकश कर चुके हैं। इनमें विपक्ष कांग्रेस के एक और एक निर्दलीय विधायक भी शामिल हैं। जहां तक भाजपा विधायकों का सवाल है, तो उन्हें इसमें भी फायदा दिख रहा है। मुख्यमंत्री के लिए सीट छोड़ी तो सरकार में कैबिनेट मंत्री के दर्जे का ओहदा और अगले विधानसभा चुनाव में इस राजनीतिक बलिदान की भरपाई की भी गारंटी। इसके अलावा मुख्यमंत्री का विधानसभा क्षेत्र होगा तो विकास कार्यों के कहने ही क्या।
बदलाव की चर्चा पर लगा पूर्ण विराम
राजनीतिक दलों का अपना-अपना चरित्र और रीति-नीति होती है। उत्तराखंड में कांग्रेस और भाजपा को ही देख लीजिए। कांग्रेस लगातार दूसरे विधानसभा चुनाव में भाजपा के हाथों बुरी तरह पराजित हुई। हाईकमान ने संगठन में बदलाव किया तो कांग्रेस में टूट तक की नौबत आ गई। वह तो किसी तरह नेताओं ने बात संभाली हुई है। उधर, भाजपा ने कई मिथक तोड़ते हुए लगातार दूसरी बार सत्ता हासिल की।
वह भी ठीक दो-तिहाई बहुमत के साथ, लेकिन इसके बाद भी पार्टी अपने प्रदर्शन की समीक्षा करते हुए चुनाव के दौरान भितरघात करने वालों को तलाश रही है। यही नहीं, विघ्नसंतोषियों ने तो राजनीतिक गलियारों में यह तक चर्चा चला दी कि पार्टी जल्द संगठन में बड़ा बदलाव कर सकती है। फिर प्रदेश प्रभारी दुष्यंत कुमार गौतम ने स्वयं मोर्चा संभाल लिया। बोले, इसी संगठन के बूते पार्टी को विधानसभा चुनाव में इतनी बड़ी जीत मिली है तो फिर कैसा बदलाव।
पहले हार, फिर नई नियुक्तियों पर रार
एक तो पांच साल बाद सत्ता में वापसी के कांग्रेस के मंसूबों पर पानी फिरा, उस पर रही-सही कसर पूरी कर दी पार्टी के अंदर पैदा बवाल ने। विधानसभा चुनाव में कमजोर प्रदर्शन की गाज प्रदेश अध्यक्ष गणेश गोदियाल पर गिर चुकी है। अब हाईकमान ने नए प्रदेश अध्यक्ष के रूप में दो बार विधायक रहे करन माहरा को जिम्मेदारी सौंपी है।
नेता प्रतिपक्ष पूर्व मंत्री यशपाल आर्य और उप नेता पहली बार विधायक बने भुवन चंद्र कापड़ी को बनाया गया। इससे नेता प्रतिपक्ष बनने को लालायित विधायकों को झटका लगा। दरअसल, नेता प्रतिपक्ष का दर्जा कैबिनेट मंत्री का होता है, तो भला कौन नहीं चाहेगा कि उसे अवसर मिले। संगठन की कमान युवा चेहरे को सौंपना भी कई नेताओं को गवारा नहीं हुआ, माहरा से वरिष्ठ जो हैं। एकबारगी लगा कि कांग्रेस टूट का शिकार होने जा रही है। खैर, फिलहाल लग रहा है कि मामला सुलझ गया है।
भाजपा छोड़ी नहीं, परिस्थितियों ने छुड़वा दी
हरक सिंह रावत राजनीति के चतुर खिलाड़ी माने जाते हैं। भाजपा से शुरुआत कर बसपा, कांग्रेस से होते हुए वर्ष 2016 में भाजपा में लौटे। इस बार उनके आकलन में कहीं कुछ गड़बड़ी रह गई। चुनाव से ठीक पहले भाजपा ने उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया। कहा गया कि वह एक ओर तो दो टिकट मांग रहे थे और दूसरी तरफ कांग्रेस में भी अपनी संभावनाएं टटोल रहे थे।
भाजपा के पल्ला झटकने पर रावत लगभग छह साल बाद कांग्रेस में लौट तो गए, लेकिन उन्हें टिकट एक ही मिला। स्वयं चुनाव न लड़कर अपनी पुत्रवधू को उन्होंने मैदान में उतारा, लेकिन जीत हाथ न लगी। भाजपा से निकाले जाने की कसक अब भी हरक के दिल में है। बोले कि वह तो भाजपा छोडऩा ही नहीं चाहते थे, उन्होंने स्वयं छोड़ी भी नहीं। जो कुछ हुआ, परिस्थितिवश हुआ। सच में, हरक की बात में कुछ तो सच्चाई है।